मैं तब स्कूल में था , घर में श्राद्ध होता तो घरवाले ये कहकर स्कूल भेजते कि इंटरवल में वापस लौट आना। मैं जब वापस घर लौटता तो अपने साथ स्कूल वाले कुछ दोस्तों को भी ले आता , ये कहकर कि आज मेरे घर न्यौता है।
तब किसी को न्यौते का कारण बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि श्राद्ध के उन दिनों लगभग ऐसे न्योते मोहल्ले के हर घर में होते। पूड़ी , दाल की कचौरी , दही के आलू , कद्दू ,रायता मूली टमाटर वाला सलाद , गुलाब जामुन और खीर बनाये जाते।
घर में श्राद्ध वाले दिन पकवानों की ये लिस्ट हमेशा यही रहती। खाना आँगन में बड़े - बड़े भगौनो और पतीलों में बनाया जाता और सबसे पहले थालियां सजाकर ऊपर छत पर ले जाई जातीं। मुझे याद है मैं और छोटे भाई थालियों को छत पर ले जाते और जोर - जोर से काव - काव चिल्लाते । कुछ ही देर में धीरे - धीरे सैकड़ों कौए इकट्ठा होकर खाना खाते। इस बीच नीचे पंडित जी और पंडताइन चाची इंतज़ार करती कि कब हम ऊपर से उन्हें ये इत्तिला करें कि कौओं ने खाना खा लिया है , और वो खाना शुरू करें।
मतलब ये कि कौओं के भोजन के बाद ही कोई उस दिन खाना खाता। मेरी उम्र उस वक़्त इतनी नहीं थी कि मुझे ये सब समझाया जाता कि हम कौओं को खाना क्यों खिलाते हैं पर धीरे - धीरे मुझे आसान भाषा में समझ आने लगा और मैंने इस बात पर भरोसा भी किया कि हमारे ही बाबा ,दादी या वो व्यक्ति जो हमें छोड़कर भगवान के पास गया , कौए के रूप में इस दिन आता है।
हर साल श्राद्ध आता और हम यही दोहराते पर धीरे - धीरे मोहल्ले में कौए ही खत्म हो गए और मुझे याद है कि हमने उसकी जगह खाना गैया को खिलाया। पर मेरे मन में श्राद्ध वाले दिनों में हमेशा कौएं वाली वो यादें रहीं।
अभी यहाँ दो दिन पहले रूम के बैकयार्ड में अचानक ना जाने कहाँ से एक कौआ आ गया। मेरी शायद उस पर नजर ना भी जाती पर इसलिए चली गयी कि वो कई घंटों से एक ही जगह बैठा था। पास जाकर देखा तो भी नहीं उड़ा , शायद चोटिल था। मैंने कुछ खाने का रखा और वापस अंदर आ गया, पर अचानक याद आया आजकल श्राद्ध चल रहे हैं।
इस बात पर कई लोग हँस भी सकते हैं पर मेरी ऐसी चीजों में बड़ी कठोर आस्था है। मुझे मेरे बचपन की सिखाई हर बात पर यकीन होता है। तो इस बात पर भी कि ये कोई अपना ही है !
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