ध्यान सिर्फ आंख बंद करके बैठना नहीं हैं
आपने बहुत सी विडियो देख कर साधना करने का भी मन बनाया होगा। अप्सरा साधना भी आपने करने की सोची होगी। पर समस्या एक ही आती हैं। ध्यान की ये है क्या और होता कैसे हैं। आइये जानते हैं। ध्यान की बारीकियों कों
मन को किसी बिंदु ,व्यक्ति या किसी वस्तु पर एकाग्र करना और उसमे लीन हो जान ध्यान है. ईश्वर की उपासना का सर्वोच्च तरीका ध्यान ही माना जाता है. वाह्य पूजा उपासना के प्रयोग के बाद जिस पद्धति से ईश्वर की उपलब्धि हो सकती है, वह ध्यान ही हो सकता है. केवल आंखें बंद करना ध्यान नहीं है, चक्रों पर ऊर्जा को संतुलित करना भी आवश्यक होता है. ध्यान एक प्रक्रिया है, जो कई चरणों के बाद हो पाता है. इन कई चरणों में पहले चक्रों को ठीक किया जाता है. ध्यान की सिद्धि के बाद व्यक्ति अनंत सत्ता का अनुभव कर पाता है, और इसे समाधि कहा जाता है. तमाम गुरुओं और आचार्यों ने ध्यान की अलग अलग विधियां बताई हैं, पर सबके उद्देश्य एक ही हैं - ईश्वर की अनुभूति ।
ध्यान के बिषय हर व्यक्ति का अलग अलग मत हैं। पर इसका मूल अर्थ है ं । आसन भाषा में बताऊँ तो ध्यान का मतलब ही हैं किसी पर भी ध्यान नहीं देना। यही ध्यान हैं। नहीं समझे चलिए समझाता हूँ।
ध्यान में बैठने का तरीका
1- ध्यान करने का समय सुबह 5 बजे से 7 बजे तक
2- ध्यान करने का 2 समय रात्रि 9 बजे से 11:55 तक
3- ध्यान में बैठने के 2 घण्टे पहले भोजन व 1 घण्टे पहले पानी पी ले। क्योंकि कि अगर आप ऐसा नहीं करेगें तो आपकी पूरी ऊर्जा भोजन पचाने व पानी फिल्टर करने में व्यय हो जायेगी।
4- हमेशा कमर व रीढ़ की हड्डी व गर्दन को सीधा रखें।
5- हमेशा आसन या वस्त्र के ऊपर ही बैठे । बैड पर भी बैठ सकते हैं।
6- बिना कुछ बिछा कर बैठने से आपकी जो ऊर्जा हो पृथ्वी पर ही रह जाती हैं। इसलिए हमेशा वस्त्र पर ही बैठे।
7- कध्धे (सोल्डर) को धीला रखें । कोई भी ताकत या फोर्स ने दें।
8- ध्यान के बाद 1/2 घण्टे मतलब आधे घण्टे तक भोजन वह पानी ग्रहण न करें ।
क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान क्रिया और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है।
बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है।
आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति।
ध्यान का स्वरूप : हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।
ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।
ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।
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Nice information
ReplyDeleteSir address de dau ashram ka, aap se jurne ki khahash hai jee
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